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Chapter 7 भू आकृतियाँ तथा उनका विकास (Landforms and their Evolution) Solutions

Question - 11 : - आई व शुष्क जलवायु प्रदेशों में प्रवाहित जल ही सबसे महत्त्वपूर्ण भू-आकृतिक कारक है। विस्तार से वर्णन करें।

Answer - 11 : - प्रवाहित जल महत्त्वपूर्ण भू-आकृतिक अभिकर्ता है। इसका कार्य आर्द्र एवं शुष्क जलवायु प्रदेशों में विशेष रूप से प्रभावशाली रहता है। आर्दै प्रदेशों में जहाँ अत्यधिक वर्षा होती है, प्रवाहित जल सबसे महत्त्वपूर्ण भू-आकृतिक कारक होता है जो धरातल के निम्नीकरण के लिए उत्तरदायी होता है। आर्द्र क्षेत्रों में प्रवाहित जल अधिक वर्षा के कारण चादर के रूप में प्रवाहित होता है, इसके अतिरिक्त वह निर्धारित नदी धारा के रूप में भी प्रवाहित होकर अपना अपरदन, परिवहन एवं निक्षेपण कार्य पूरा करता है। प्रवाहित जल अपरदन कार्य युवावस्था में अधिक तीव्रता में करता है इस अवस्था में नदी का जल तीव्र ढाल पर बहने के कारण जल प्रपात एवं छोटे झरनों का निर्माण करता है तथा नदी घाटी के विकास में संलग्न रहता है। प्रौढ़ावस्था में प्रवाहित जल निक्षेपण स्थलाकृतियों को जन्म देता है। नदी जल का कार्य उन क्षेत्रों में भी महत्त्वपूर्ण होता है जहाँ जलवायु अपेक्षाकृत शुष्क होती है। यहाँ धरातल पर प्रवाहित जल से रिल बनती है, उनसे अवनालिकाएँ तथा घाटियों का भी विकास होता है।

Question - 12 : - चूना-चट्टानें आई व शुष्क जलवायु में भिन्न व्यवहार करती हैं, क्यों? चूना प्रदेशों में प्रमुख | व मुख्य भू-आकृतिक प्रक्रिया कौन-सी है और इसके क्या परिणाम हैं?

Answer - 12 : -

चूना-चट्टान वाले प्रदेशों में आई व शुष्क जलवायु के कारण भू-आकृतिक प्रक्रिया भिन्न होती है। चूना-चट्टान वाले आर्द्र जलवायु प्रदेशों में चट्टानों पर जल सरलता से स्रवण कर क्षैतिज रूप में प्रवाहित होने लगता है और रासायनिक घोलीकरण क्रिया से अपरदन कार्य प्रारम्भ हो जाता है। क्योंकि चूने के पत्थर में कैल्सियम कार्बोनेट प्रमुख अवयव होता है जो आर्द्र जलवायु में जल की उपलब्धता के कारण आसानी से घुल जाता है। जबकि शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में जल अल्पता के कारण चूने की चट्टानों के अवयव आसानी से नहीं घुल पाते हैं। अत: चूना-चट्टानें आर्द्र व शुष्क जलवायु में भिन्न व्यवहार करती हैं। इसका मुख्य कारण चट्टानों का रासायनिक संघटन और जलवायु की भिन्नता है।।

चूना प्रदेशों में मुख्य भू-आकृतिक प्रक्रिया घोलीकरण के द्वारा चट्टानों को अपरदन और निक्षेपण है। इन क्षेत्रों में भूमिगत जल द्वारा चट्टानों के अवयव घोलीकरण से अन्यत्र स्थानों पर जमा होते रहते हैं जिससे कार्ट टोपोग्राफी का विकास होता है। इसके परिणामस्वरूप आकाशीय एवं पातालीय स्तम्भ स्थलरूपों का निर्माण होता है जबकि अपरदन के कारण सिन्कहोल डोलाइन, युवाला एवं कन्दराएँ आदि स्थलरूप निर्मित होते हैं 

Question - 13 : - हिमनद ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों को निम्न पहाड़ियों व मैदानों में कैसे परिवर्तित करते हैं या किस प्रक्रिया से यह कार्य सम्पन्न होता है बताएँ ।

Answer - 13 : - पृथ्वी पर परत के रूप में हिम या पर्वतीय ढालों से घाटियों में रैखिक प्रवाह के रूप में प्रवाहित हिम को हिमनद कहते हैं। प्रवाहित जल के विपरीत हिमनद प्रवाह बहुत धीमी गति में सक्रिय रहता है। वास्तव में हिमनद गुरुत्वबल के कारण गतिमान होते हैं और प्रबल रूप से अपरदन कार्य करते हैं। जब एक बड़े क्षेत्र में भारी मात्रा में हिम एकत्र हो जाता है तो यह अपने भार और गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से पर्वतीय ढाल अथवा । घाटी में धीमी गति से प्रवाहित होने लगता है। इस प्रवाह के दौरान हिम चट्टानों के साथ घर्षण एव अपघटन/अपघर्षण प्रक्रिया से अपरदन का कार्य करता है जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार के | स्थलरूपों का निर्माण होता है। इनमें हिमगह्वर (Cirque), शृंग (Horms) आदि मुख्य हैं ।


हिम जब उच्च पर्वतों से निम्न पर्वतीय क्षेत्रों में प्रवाहित होता है तो तापमान वृद्धि के कारण वह पिघलना आरम्भ कर देता है। इस क्षेत्र में हिम ठोस रूप से तरल रूप में प्रवाहित होकर विभिन्न प्रकार के स्थलरूप; जैसे-हिमोढ़, एस्कर, डुमलिन आदि का निर्माण करता है ।

वास्तव में, हिमनद ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों को अपरदन प्रक्रिया के द्वारा ही प्रारम्भ में निम्न पहाड़ियों के रूप में तथा पुनः पहाड़ियों को मैदानों के रूप में परिवर्तित कर देता है जिसमें ठोस हिम के साथ-साथ पिघलता हिम भी अपना विशेष सहयोग प्रदान करता है। अतः हिमनद ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों को निम्न पहाड़ियों व मैदानों में परिवर्तन को अपरदन कार्य के सहयोग से पूरा करता है।।

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