Question -
Answer -
वास्तव में पृथ्वी तापमान (ऊष्मा) का न तो संचय करती है न ही ह्रास, बल्कि यह अपने तापमान को स्थिर रखती है। ऐसा तभी सम्भव है, जब सूर्य विकिरण द्वारा सूर्यातप के रूप में प्राप्त उष्मा एवं पार्थिव विकिरण द्वारा अन्तरिक्ष में संचलित ताप बराबर हो। चित्र 9.2 से स्पष्ट है कि यदि यह मान लें कि वायुमण्डल की ऊपरी सतह पर प्राप्त सूर्यातप 100 प्रतिशत है तो 100 इकाइयों में से 35 इकाइयाँ पृथ्वी के धरातल पर पहुँचने से पहले ही अन्तरिक्ष में परावर्तित हो जाती हैं। शेष 65 इकाइयाँ अवशोषित होती हैं। इनमें 14 वायुमण्डल में तथा 51 पृथ्वी के धरातल को प्राप्त होती हैं। पृथ्वी द्वारा अवशोषित ये 51 इकाइयाँ पुनः पार्थिव विकिरण के रूप में लौटा दी जाती हैं। इनमें से 17 इकाइयाँ तो सीधे अन्तरिक्ष में चली जाती हैं और 34 इकाइयाँ वायुमण्डल द्वारा अवशोषित होती हैं। (देखिए चित्र 9.2 अ) (6 इकाइयाँ स्वयं वायुमण्डल द्वारा, 9 इकाइयाँ संवहन द्वारा और 19 इकाइयाँ संघनन की गुप्त उष्मा के रूप में चित्र 9.2 ब) वायुमण्डल द्वारा 48 इकाइयों का अवशोषण होता है। इनमें 14 इकाइयाँ सूर्यापत की ओर 34 इकाइयाँ पार्थिव विकिरण की होती हैं। वायुमण्डल विकिरण द्वारा इनको भी अन्तरिक्ष में वापस लौटा देता है। अतः पृथ्वी के धरातल तथा वायुमण्डल से अन्तरिक्ष में वापस लौटने वाली विकिरण की इकाइयाँ क्रमश: 17 और 48 हैं, जिनका योग 65 होता है (चित्र 9.2 ब)। वापस लौटने वाली ये इकाइयाँ उन 65 इकाइयों को सन्तुलन कर देती हैं जो सूर्य से प्राप्त होती हैं। यही पृथ्वी का 100 इकाइयों का ऊष्मा बजट है।
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यही कारण है कि पृथ्वी पर ऊष्मा के इतने बड़े स्थानान्तरण के होते हुए भी उष्मा सन्तुलन बना रहता है। इसीलिए पृथ्वी न तो बहुत गर्म होती है न ही अधिक ठण्डी, बल्कि मानव एवं जीव-जंतुओं के अनुकूल तापमान रखती है।