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Chapter 1 स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था Solutions

Question - 11 : -
औपनिवेशिक काल में भारत की जनांकिकीय स्थिति का एक संख्यात्मक चित्रण प्रस्तुत करें।

Answer - 11 : -

ब्रिटिश भारत की जनसंख्या के विस्तृत ब्यौरे सबसे पहले 1881 की जनगणना के तहत एकत्रित किए गए। बाद में प्रत्येक दस वर्ष बाद जनगणना होती रही। वर्ष 1921 के पूर्व का भारत जनांकिकीय संक्रमण के प्रथम सौपाने पर था। द्वितीय सोपान को आरम्भ 1921 के बाद माना जाता है। कुल मिलाकर साक्षरता दर तो 16 प्रतिशत से भी कम ही थी। इसमें महिला साक्षरता दर नगण्य, केवल 7 प्रतिशत आँकी गई थी। शिशु मृत्यु दर 218 प्रति हजार थी। इस काल में औसत जीवन प्रत्याशा 32 वर्ष थी। देश की अधिकांश जनसंख्या अत्यधिक गरीब थी।

Question - 12 : -
स्वतंत्रता पूर्व भारत की जनसंख्या की व्यावसायिक संरचना की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।

Answer - 12 : -

औपनिवेशिक काल में विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रकों में लगे कार्यशील श्रमिकों के आनुपातिक विभाजन में कोई परिवर्तन नहीं आया। कृषि सबसे बड़ा व्यवसाय था जिसमें 70-75 प्रतिशत जनसंख्या लगी थी। विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्रकों में क्रमशः 10 प्रतिशत तथा 15 से 20 प्रतिशत जनसमुदाय को रोजगार मिल रहा था। इस काल में क्षेत्रीय विषमताओं में बड़ी विलक्षणती थी। मद्रास प्रेसीडेंसी के कुछ क्षेत्रों में कृषि पर जनसंख्या की निर्भरता कम हो रही थी। विनिर्माण तथा सेवा श्रेत्रकों का महत्त्व बढ़ रहा था वहीं दूसरी ओर पंजाब, राजस्थान एवं उड़ीसा में कृषि क्षेत्र में श्रमिकों की संख्या में बढोत्तरी हो रही थी।

Question - 13 : -
स्वतंत्रता के समय भारत के समक्ष उपस्थित प्रमुख आर्थिक चुनौतियों को रेखांकित करें।

Answer - 13 : -

स्वतंत्रता के समय भारत के समक्ष उपस्थित प्रमुख आर्थिक चुनौतियाँ इस प्रकार थीं

  1. कृषि क्षेत्र में अत्यधिक श्रम-अधिशेष एवं निम्न उत्पादकता।।
  2. औद्योगिक क्षेत्र में पिछड़ापन।
  3. पुरानी व परम्परागत तकनीक।
  4. विदेशी व्यापार पर इंग्लैण्ड का एकाधिकार।
  5. व्यापक गरीबी।
  6. व्यापक बेरोजगारी।
  7. क्षेत्रीय विषमताएँ।
  8. आधारिक संरचना का अभाव।

Question - 14 : -
भारत में प्रथम सरकारी जनगणना किस वर्ष में हुई थी?

Answer - 14 : -

वर्ष 1881 में।

Question - 15 : -
स्वतंत्रता के समय भारत के विदेशी व्यापार के परिमाण और दिशा की जानकारी दें।

Answer - 15 : -

विदेशी व्यापार का परिमाण द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारत के विदेशी व्यापार की मात्रा में कमी हुई। आयातों में कमी होने के मुख्य कारण थे—शत्रु राष्ट्रों के साथ आयातों में कटौती, निर्यातक देशों का युद्ध में संलग्न होना, जहाजी यातायात की तंगी, यातायात भाड़े में वृद्धि और मशीनों के आयातों पर नियंत्रण। महाद्वीपीय देशों को निर्यात बंद हो जाने और जहाजी परिवहन की कमी के कारण ब्रिटेन को होने वाले निर्यातों में भी कमी आई। किंतु बाद के तीन वर्षों में इनमें तेजी से वृद्धि हुई।
युद्ध के कारण विदेशी व्यापार की संरचना में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। आयात मद में कच्चे माल का हिस्सा बड़ा जबकि निर्मित वस्तुओं का हिस्सा घटा। इसके विपरीत निर्यातों में कच्चे माल का हिस्सा घटा जबकि निर्मित घस्तुओं का भाग बढ़ा। वस्तुओं की दृष्टि से इस अवधि में चाय तथा निर्मित जूट का निर्यात निरंतर बढ़ता रहा जबकि कच्चे जूट व तिलहन का निर्यात युद्ध से पूर्व तो बढ़ा किंतु उसके बाद घटता गया। सूती धागा, चीनी, सीमेंट, माचिस अन्य निर्मित माल तथा अन्य उपभोग वस्तुओं के आयात में निरंतर गिरावट आई जबकि खनिज तेल, रसायन, रंग आदि के आयात बढ़ते गए।

विदेशी व्यापार की दिशा- युद्धकाल में ब्रिटेन के साथ भारत के निर्यात और आयात दोनों प्रकार के व्यापार का प्रतिशत कम हो गया लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के देशों के साथ व्यापार में बहुत वृद्धि हुई। संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ व्यापार में तेजी से वृद्धि हुई। कनाडा के साथ व्यापार में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। यूरोपीय देशों-फ्रांस, जर्मनी, इटली, नीदरलैण्ड, बेल्जियम, ऑस्ट्रिया आदि के साथ भारत का व्यापार घटता चला गया। जापान के युद्ध में कूद पड़ने के कारण भारत का उसके साथ व्यापार बंद हो गया।

Question - 16 : -
क्या अंग्रेजों ने भारत में कुछ सकारात्मक योगदान भी दिया था? विवेचना करें।

Answer - 16 : -

भारत के आर्थिक विकास में अंग्रेजों का नकारात्मक पक्ष सकारात्मक पक्ष की तुलना में अधिक प्रबल है। यद्यपि अंग्रेजी इतिहासकार भारत के अल्पविकास के लिए अंग्रेजी शासन को उत्तरदायी नहीं मानते। इस बारे में एल०सी०ए० नोल्स (L.C.A. Knowles) का कहना है-“ब्रिटिश शासकों ने तो आर्थिक विकास को प्रोत्साहन दिया, न कि उसमें बाधा डाली। वेरा एन्स्टे (Vera Anstey) का कहना है कि नसंख्या में अत्यधिक वृद्धि और लोगों के दृष्टिकोण के कारण यह देश आर्थिक दृष्टि से अल्पविकसित रह गया। इसके लिए आर्थिक नीतियाँ अधिक जिम्मेदार नहीं हैं। भारतीय  अर्थशास्त्री-दादाभाई नौरोजी, रमेशचन्द्र दत्त, रजनी पाम दत्त, वी०वी० भट्ट आदि इन विचारों का खण्डन करते हैं। यद्यपि, भारत के अल्पविकास के लिए ब्रिटिश शासन ही उत्तरदायी है तथापि ब्रिटिश साम्राज्य का भारत के विकास में सकारात्मक योगदान भी रहा है जो निम्नलिखित है।

  1. ब्रिटिश शासन के अंतर्गत राजनीतिक एवं प्रशासन की दृष्टि से भारत एक इकाई बन गया।
  2. शांति एवं व्यवस्था की दृष्टि से स्थिति में सुधार हुआ।
  3. परिवहन और संचार सुविधाओं में वृद्धि हुई।
  4. नगरीय क्षेत्रों में पाश्चात्य उत्तरदायी विचारों का प्रभाव पड़ा। इसके बावजूद राज्य की शोषणकारी आर्थिक नीति ने विकास के पुराने भौतिक आधार को नष्ट कर दिया. जो आगे चलकर भारत के आर्थिक विकास में बाधक बना।

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