Question -
Answer -
उन्नीसवीं सदी के यूरोप में महिलाएँ उपन्यास पढ़ने लगी थीं। कुछ महिलाएँ लिखने भी लगीं थीं। कई सारे उपन्यास घरेलू जिंदगी पर आधारित थे, इनमें महिलाओं को अधिकार के साथ बोलने का अवसर मिला। लेकिन बहुत-से लोग ऐसे थे जिन्हें यह चिंता थी कि यदि औरतें पढ़ेगी और लिखेंगी तो वे पत्नी, माँ की परंपरागत भूमिकाओं को नहीं सँभालेंगी और घर अस्त-व्यस्त हो जाएँगे।
उन्नीसवीं सदी के भारत में भी अनेक लोगों को यह चिंता थी कि पता नहीं उपन्यासों के कल्पना-लोक का औरतों के जेहन पर क्या असर पड़े। उन्हें लगता था कि इससे वे भटक जाएँगी। इसलिए कुछ लोगों ने पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखकर यह अपील की कि वे उपन्यासों के नैतिक दुष्प्रभाव से बचें। यह निर्देश खासतौर पर महिलाओं व बच्चों के लिए था। ऐसा माना जाता था कि उन्हें आसानी से बहकाया जा सकता है।
यूरोप व भारत के परंपरागत लोगों में महिलाओं द्वारा उपन्यास पढ़ने को लेकर चिंता से पता चलता है कि उस समय महिलाओं को आश्रित और मर्दो के मुकाबले कमतर बुद्धिमान माना जाता था। यह माना जाता था कि उन्हें आसानी से बहकाया जा सकता है, इसलिए वे पढ़-लिखकर या उपन्यासों की कल्पनाशीलता से प्रभावित होकर बिगड़ जाएँगी । इससे उस काल की महिलाओं की बंदिशों का भी पता चलता है कि वे अपने निर्णय स्वयं लेने की स्थिति में नहीं थीं।